KAJARI TEEJ
भाद्रपद कृष्ण तीज
भाद्रपद कृष्ण पक्ष तृतीया को संपूर्ण पूर्वी उत्तर भारत में कजरी-तीज का त्योहार बड़ी धूमधाम से मनाया जाता है। इस अवसर पर सुहागिनें कजरी खेलने अपने मायके जाती हैं। ये महिलाएं नदी-तालाब आदि से मिट्टी लाकर उसका पिंड बनाती हैं और उसमें जौ के दाने बो देती हैं। रोज इसमें पानी डालने से पौधे निकल आते हैं। इन पौधों को कजरी वाले दिन लड़कियां अपने भाई तथा बुजुर्गों के कान पर रखकर उनसे आशीर्वाद प्राप्त करती हैं। इस प्रक्रिया को 'जरई खोंसना' कहते हैं। इसके एक दिन पूर्व यानि भाद्रपद कृष्ण पक्ष द्वितीया को 'रतजगा' का त्योहार होता है। महिलाएं रात भर कजरी खेलती हैं। कजरी खेलना और कजरी गाना दोनों अलग चीजें हैं।
कजरी का यह स्वरुप केवल ग्रामीण इलाको तक सीमित है। खेलने के इस स्थान को चौघट कहते हैं। यह खेल गायन करते हुए किया जाता है। जो देखने और सुनने में अत्यन्त मनोरम लगता है। गाये जाने वाले गीत को कजली अथवा कजरी कहा गया। कजली तीज के रोज़ जी भर कजरी गाने-गवाने का कार्यक्रम चलता रहता है। कजरी-गायन की परंपरा बहुत ही प्राचीन है। सूरदास, प्रेमधन आदि कवियों ने भी कजरी के मनोहर गीत रचे थे, जो आज भी गाए जाते हैं।
कजरी का आरंभ देवी वंदना से होता है। कजरी गीतों में जीवन के विविध पहलुओं का समावेश होता है। इसमें प्रेम, मिलन, विरह, सुख-दुख, समाज की कुरीतियों, विसंगतियों से लेकर जन जागरण के स्वर गुंजित होते हैं।
इस दिन स्त्रियां बागों मे झूले ड़ाल कर झूला झूलती हैं। सावन में कजरी और झूला दोनों एक दूसरे के पूरक से लगते हैं। सावन में स्त्रियां ही नही पुरुष भी मंदिर में जाकर भगवान को झूले में बिठाकार झूला झुलाते हैं। वे झूले में झूलते भगवान के दर्शन कर, उन्हें झूम-झूमकर मनभावनी कजरी सुनाते हैं। संयोग और वियोग श्रृंगार के अतिरिक्त कजरी में भक्ति, सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक, आर्थिक तथा ऐतिहासिक चित्रण भी देखने-सुनने को मिलते हैं।